तार काटो तरकुल काटो (हास्य-व्यंग्य)- श्री घनश्याम सहाय

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◆ तार काटो तरकुल काटो◆


तार काटो तरकुल काटो,
काटो बन के खाजा।
हाथी प के कुकुरा,
चमक चले राजा।

वास्तविक शब्द है घुँघुरा है किन्तु मैं घुँघुरा की जगह "कुकुरा" शब्द का प्रयोग करुँगा। 
आप पूछेंगे कारण? साहब,कारण ये कि इस लोकतंत्र में राजतंत्र का इस्तेमाल बखूबी हो रहा है। लोकतंत्र का स्वरूप ऐसा कि कुत्ता हाथी के उपर चढ़ आदि से अंत पर भौंकता है और जनमानस भौंचक हो यह जानने की जुगत भिड़ाता है कि ---आखिर कुत्ता हाथी पर चढ़ा तो चढ़ा कैसे---

कुकुर मतंग पर,भौंकत आदि-अंत पर,
देव सब मिली-जुली दुंदुभी बजावत हैं।
श्याम 'घनश्याम' अति देखत प्रसन्न भये,
भरि-भरि अँजुरिन को मोती लुटावत हैं।

साहिबान, आज का खेल यही है। जब देखो जिधर देखो---रोज एक नई राजनीतिक पार्टी का जन्म हो रहा हैऔर जन्म पर मंगलगीत,सोहर गाए जा रहे हैं--

अंगना में कुईयाँ खोनाइले,पीयर माटी नू हो,
ए ललना जाहि रे जगवहु कौन देवा कि,
नाती जनम लिहले हो।
नाती मोर जनमले त भल भईले,बंस बढ़ावहु होs
ए ललना देह घालsसोने के हँसुअवा,
नाती के नार काटहु नु होsss।

सोहर गाए गए किन्तु मंगलगीत होने के पश्चात  जनमानस संशय में डूबा रहता है कि जन्म प्राकृतिक है या अप्राकृतिक--जन्म लेने वाला परिपक्व है या अपरिपक्व और फिर पीछे रेल के डिब्बे की तरह एक हुज़ूम आ खड़ा होता है।जनाधार हो कि न हो कोई फर्क नहीं पड़ता---इनका काम बस अख़बारों की हेडलाइन में बने रहना है।
अब विभिन्न राजनैतिक दलों के बनने की परिपाटी कब और कहाँ से शुरु हुई आइए इसे विस्तार से जानते हैं।

कृष्ण जैसे उत्कृष्ट राजनीतीज्ञ ने कहा--
"एको अहं द्वितीयोनास्ति"। क्या यह गलत है? 

उत्तर है, जी हाँ, कृष्ण ने गलत कहा। राजनैतिक पार्टियों के गठन की प्रक्रिया तो ऋषि अंगिरस के आश्रम से ही शुरु हो गई थी।

महर्षि भृगु ने अपने पुत्र, जिसका नाम शुक्र था को ब्रह्मर्षि अंगिरस के पास शिक्षा के लिए भेजा।

शुक्राचार्य के साथ ऋषि अंगिरस के आश्रम में अंगिरस पुत्र वृहस्पति भी शिक्षा ग्रहण करते थे। शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि वृहस्पति की अपेक्षा शुक्राचार्य अधिक कुशाग्र बुद्धि के स्वामी थे। वृहस्पति की मेधा शुक्राचार्य की मेधा के समक्ष कहीं भी नहीं टिकती थी, फिर भी बृहस्पति की शिक्षा-दीक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाता था क्योंकिं आश्रम बृहस्पति के बाप का था।यह बात शुक्राचार्य को नागवार गुजरती थी--वह सोचते कुशाग्रता और मेधा में बृहस्पति मेरे समक्ष कहीं नहीं टिकता फिर भी आश्रम में सिर्फ बृहस्पति को भाव दिया जाता है--बृहस्पति की कुंद बुद्धि मेरी कुशाग्र बुद्धि को मात दिए जा रही है।शुक्राचार्य इस अन्याय को सहन न कर पाए और ऋषि अंगिरस का आश्रम छोड़ गए। आश्रम छोड़ने के उपरांत शुक्राचार्य ने अपनी शिक्षा-दीक्षा ऋषि गौतम के आश्रम में पूर्ण की।

शिक्षा पूर्ण होने के उपरांत बृहस्पति देवताओं के गुरु नियुक्त हुए क्योंकिं वे ब्रह्मा के मानस पुत्र ऋषि अंगिरस की संतान थे।अब यहाँ सोचने वाली बात यह है कि क्या उस काल में भी पैरवी चलती थी? क्या उस काल में भी पैरवी पर नियुक्तियां हुआ करती थीं? यदि इसका उत्तर हाँ है तो आज ये गलत कैसे? परम्पराओं का परिचालन बिना किसी आधार के नहीं होता।सूर्य पहले था, इसलिए आज है---यदि पहले न होता तो आज भी न होता। बुद्धि की कुशाग्रता के आधार पर देवताओं का गुरु किसे होना चाहिए था-----

शुक्राचार्य को या वृहस्पति को? अब बृहस्पति जैसा गुरु तो, इंद्र जैसा दंभी, कपटी और चारित्रिक दोषों से परिपूर्ण शिष्य ही तो गढ़ेगा न।

बृहस्पति का देवताओं के गुरु बनने की बात जब शुक्राचार्य को पता चली तो उन्हें बहुत क्षोभ हुआ--होना भी चाहिए।शुक्राचार्य ने सभी असुरों को इक्ठ्ठा किया और गुरु विहीन असुरों को गुरु की प्राप्ति हुई।शुक्राचार्य असुरों के गुरु बने। देवताओं और असुरों का निरंतर संघर्ष सर्वविदित है। यह संघर्ष केवल देवताओं और असुरों का ही नहीं अपितु शुक्राचार्य और बृहस्पति के बीच का भी है।

जब प्रभाव में आकर मेधा की हत्या की जाती है---असाधारण बुद्धि वाले को दाब कर जब साधारण बुद्धि वाले को प्राथमिकता दे दी जाती है तब विद्रोह होता है---शुक्राचार्य पैदा होते हैं। 
मेरी समझ से तो यहीं से दलों के गठन की प्रक्रिया आरंभ हुई होगी और निरंतर विकृत होते हुए आज के अपने वर्तमान राजनैतिक स्वरूप को प्राप्त हुई होगी।

यह कहना गलत नहीं होगा कि दल गठन और दल विभाजन की की प्रक्रिया ऋषि अंगिरस के आश्रम से ही आरंभ हुई होगी।
और आज---
उष्ट्राणां विवाहेषु,गीतं गायन्ति गर्दभाः।
परस्परं प्रशंसन्ति,अहो रूपं अहो ध्वनि।।

उटों के विवाह में गधे गीत गाते हैं। एक दूसरे की प्रशंसा करते हुए कहते हैं---अहा क्या रूप है, क्या ध्वनि है।



-©घनश्याम सहाय

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