घटोत्कच बध (हास्य-व्यंग्य)- श्री घनश्याम सहाय

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।।घटोत्कच वध।।

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काम्यक वन का सुरम्य वातावरण। पौधों पर अटखेलियाँ करती तितलियों के पीछे भागता घटोत्कच, प्रेम रस में डूबे महाबली भीम और हिडिम्बा, बड़े ही स्नेह से तितलियों के पीछे भागते घटोत्कच को निहार रहे थे। आज ऐसा लग रहा था जैसे दोनों पति-पत्नी हृदय में संग्रहित समस्त प्रेम को अपने प्रिय पुत्र पर न्यौछावर कर डालेंगे।

अचानक घटोत्कच उनकी ओर आया और भीम से पूछ बैठा---पिता श्री, आप कौन हैं?
भीम ने उत्तर दिया--पुत्र,अह्म ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूँ।

घटोत्कच--अहम् के अस्मि?

भीम--पुत्र, तत् त्वम् असि। तुम भी ब्रह्म ही हो।

घटोत्कच--मम आचार्यः?

भीम प्रश्न से विचलित हुए और कहा---
पुत्रः,ते अपि,तव माता, पुष्पः,वृक्षाः,जगत्यां समस्त प्राणी जनाः अपि ब्रह्मम् सन्ति।
"सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्" सर्वत्र ब्रह्म ही है।
भीम के उत्तर के पश्चात जिज्ञासु घटोत्कच ने  फिर प्रश्न पूछ दिया--पिता श्री जब सभी के सभी ब्रह्म ही हैं तो ब्रह्म का ब्रह्म से द्वेष क्यों?

भीम ने कहा--किस ब्रह्म ने किस ब्रह्म का विरोध किया वत्स?

घटोत्कच--पिता श्री, आपने मेरे आचार्यों का विरोध किया है और आचार्य आपका विरोध कर रहे हैं। मेरे आश्रम के आचार्य कहते हैं, घटोत्कच का बाप भीम "मुफ़्तख़ोर" है, आश्रम की दक्षिणा नहीं देता।पिता श्री, यह हस्तिनापुर का ऐश्वर्य किस काम का? एक तरफ हस्तिनापुर में रोज नये-नये स्वर्णजड़ित रथ खरीदे जा रहे हैं,प्रतिदिन स्वर्णाभूषणों,स्वर्ण और रजत के सिक्कों से हस्तिनापुर का राजकोष भरा जा रहा है, और दूसरी ओर आश्रमों का अन्नभंडारण शून्य होता जा रहा है---रिक्त अमाशय आचार्य मृत्यु को प्राप्त होने कि कगार पर खड़े, मुझ जैसे कितने ही घटोत्कचों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हे प्रिय पिताश्री भीम, क्या धर्म-मर्मज्ञ, ज्येष्ठ पिताश्री,हस्तिनापुर नरेश महाराज युधिष्ठिर, क्या धर्म की परिभाषा भूल चुके हैं ? क्या मेरे आचार्य हस्तिनापुर के नागरिक नहीं हैं?जब महाराज युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर के प्रत्येक नागरिक के क्षुधा निवारण का भार उठा रखा है तो मेरे आचार्य भूखे क्यों हैं?
हिडिम्बा-.चुप करो घटोत्कच,कोई अपने पिताश्री  से ऐसे बात करता है क्या?
घटोत्कच--हाँ माते, तुम क्यों न बोलोगी, पिता श्री ने कल तुम्हें स्वर्णाभूषणों का उपहार जो दिया है, मेरी गुरु माता का क्या?उनकी रसोई ही कई दिनों से भूखी है--जब रसोई ही भूखी हो तो, गुरु परिवार का क्या कहूँ माते? माते, पिताश्री ने महीनों से आश्रम में दक्षिणा नहीं दी है। 

 गुरु दक्षिणा देने की जगह,स्वर्ण जड़ित रथ और स्वार्णाभूषण खरीदना क्या उचित है? क्या यह सजीवता पर निर्जीवता को वरीयता देना नहीं है? चलो मान लिया, ये सब खरीदना जरूरी है---क्या दक्षिणा देना जरूरी नहीं है? पूरा न सही थोड़ा ही दे दिया जाता, कम से कम "भूख" गुरु आत्मा पर हावी तो न होती।आखिर कब तक पेट को दाब कर आत्मा को जीवित रखा जा सकता है,माता?

भीम--किस बात की दक्षिणा वत्स? जब आश्रम की कक्षायें ही नहीं चलीं तो दक्षिणा किस बात की?

घटोत्कच--ठीक कहते हो पिता श्री, प्रिविलेज्ड क्लास की सोच ही विकृत होती है,जो जन्म से ही सभी सुविधाओं से लैस हो,उन्हें अनप्रिविलेज्ड क्लास के दर्द का अहसास कहाँ से होना है। आप तो प्रिविलेज्ड क्लास हो न,आप कहाँ समझोगे उनकी वेदना, आपने कभी संघर्ष तो किया नहीं, और उनहोंने सिर्फ संघर्ष ही किया है।शायद शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित सभी सिद्धांतों को आपके समाज  ने उपेक्षित कर दिया है। अहं ब्रह्मास्मि, तत् त्वम् असि इत्यादि का क्या अर्थ? सब फालतू की बातें हैं--जब ब्रह्म का ब्रह्म से स्नेह ही नहीं, तो फिर "सर्वं खल्विदं ब्रह्मं" कहना ही निर्थक है। दैवीय हृदय में तो प्रेम का संचार होता है किन्तु यहाँ तो सभी पाषाण हृदय दिखते हैं।पिताश्री,आप भी ब्रह्म नहीं,आप केवल अपने अहंकार की तुष्टि के लिए ही---- 
"अहं ब्रह्मास्मि" का आडंबर करते हो।
भीम---घटोत्कच, तुम्हारे आचार्यों ने तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट कर रखी है।

घटोत्कच--क्या किसी के लिए न्याय माँगना, भ्रष्ट हो जाना है पिताश्री? आचार्यों की भूख बड़ी या माता हिडिम्बा के आभूषण ?
बड़ी देर से वार्तालाप सुन रहे गांडीवधारी अर्जुन क्रोधित हो उठे--कहा चुप कर, राक्षसी के गर्भ से जन्मा राक्षस ? राक्षसी बात ही तो करेगा--चुप हो जा--अन्यथा--
घटोत्कच--अन्यथा क्या तातश्री,क्या अन्यथा? हाँ, हूँ मैं राक्षसी के गर्भ से जन्मा राक्षस। गुरु द्वारा किए गए श्रम का पारश्रमिक माँगना यदि राक्षसीय गुण है तो मानवीय गुणों की परिभाषा क्या है, गांडीवधारी तातश्री अर्जुन? मानव होने से तो अच्छा है, राक्षस बनकर रह जाना।

तातश्री सहदेव, आप तो अज्ञातवास में विराट नरेश के यहाँ, गोसंख्यक का कार्य कर चुके हो, एक बात बताओ, जो गाय वर्तमान में दूध नहीं देती, क्या उसे चारा नहीं देना चाहिए? क्या उसका वध कर देना चाहिए?

सहदेव--नहीं पुत्र घटोत्कच, यह शास्त्रसम्मत नहीं है। यदि गाय को चारा न दिया जाए तो वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी और भविष्य में दूध प्राप्ति की संभावना क्षीण हो जाएगी। अतः गाय को निरंतर चारा देना चाहिए। यही धर्म भी कहता है।

घटोत्कच--अक्षरशः सत्य कहा तातश्री सहदेव, क्या यह सिद्धांत आचार्यों पर लागू नहीं होता? माना कि इस दुर्भिक्ष में प्रत्यक्ष कक्षायें नहीं चल रही किन्तु अप्रत्यक्ष रूप में तो चल रहीं हैं। तातश्री सहदेव, जिस प्रकार गोशाला कि बिना दूध देने वाली गायों का ध्यान, इस आधार पर रखा जाता है कि यह भविष्य में दूध देगी, गो-धन में वृद्धि करेगी, क्या उसी प्रकार हस्तिनापुर अपने आचार्यों का ध्यान नहीं रख सकता? यदि आचार्य जीवित रहें, तो हस्तिनापुर के वंश का ज्ञानवर्धन होगा, इससे हस्तिनापुर का ही भला होगा। तातश्री दूध से शरीर पुष्ट होता है और ज्ञान से बुद्धि। समाज के लिए गाय भी आवश्यक है और गुरु भी। एक शरीर पुष्ट करता है दूसरा बुद्धि।

और आप ज्येष्ठ पिताश्री,धर्मराज युधिष्ठिर, आपका धर्म क्या कहता है? या अभी भी 'कंक' रूप में ही हो, द्यूत का नशा अभी भी सर चढ़ा है?

लगता है, सारा धन द्यूत के जमा कर रहे हो,क्यों? आचार्यों को दे डालोगे तो द्यूत के लिए कहाँ बचा पाओगे, क्यों? यही सोच कर न आचार्यों की दक्षिणा पर मौन हो। युधिष्ठिर पर हुए कटाक्ष को सुन अर्जुन व्यथित हो  उठे और गांडीव पर बाण चढ़ा डाला।

यह देख घटोत्कच बल पड़ा--तनिक रुक जाओ धनुर्धर अर्जुन, तुम भी 'बृहन्नला' रूप में आचार्य ही तो थे, यदि आचार्यों की वेदना आप नहीं समझोगे तो कौन समझेगा? शास्त्र कहते हैं जिस पात्र को व्यक्ति जी लेता है, उस पात्र का प्रभाव व्यक्ति पर काफी दिनों तक रहता है, आपको क्या हुआ? क्या शिक्षक होने का प्रभाव क्षणिक था, धनुर्धारी अर्जुन? यदि क्षणिक था, तो भी, कुछ तो शेष होगा, तुम जैसा विख्यात धनुर्धर मुझ जैसे बालक पर बाण का संधान कर रहा है? क्या यह एक शिक्षक रहे व्यक्ति को शोभा देता है? शिक्षक तो धैर्यवान होता है, आप बाण चलाने को उतावले हुए जा रहे हो, अर्जुन कुछ क्षण को रूक गए।

और आप पिताश्री, महाबली, गदाधारी भीम, सुना है, आप तो "वल्लभ" नाम के रसोईये थे न, सभी के भोजन की व्यवस्था का भार वहन किया करते थे, फिर आज क्या हुआ? क्यों गुरुजन भूख से पीड़ित हो, मृत्यु द्वारा पर खड़े हैं?  "कीचक वध" की तरह "गुरुवध" की योजना बना रहे हो क्या?
क्यों तातश्री नकुल, सौंदर्य के प्रतिमूर्ति, आप कुछ नहीं कहोगे?

इसी बीच पाँचों भाईयों ने एक दूसरे को देखा, फिर सभी ने माता "कुंती" को देखा कुंती ने कुछ ईशारा किया और अर्जुन ने घटोत्कच पर दिव्यास्त्र चला दिया। घटोत्कच कटे हुए विशाल बरगद वृक्ष की भाँति भूमि पर गिर पड़ा। सभी भाई माता कुंती सहित काम्यक वन छोड़ गए। पुत्र को भूमि पर गिरता देख हिडिम्बा का हृदय विच्छिन्न हो गया, वह दौड़ी घटोत्कच के पास आई और रोते हुए कहा--क्या यही मानवीय गुण है?क्या यही मानवता है?क्या यही धर्मराज युधिष्ठिर का धर्म है? यह धर्म है या धर्म का छद्म है? हे विधाता, वह कौन सी मनहूस घड़ी थी कि मैं भीम पर आसक्त हुई। भाई हिडिम्ब ने समझाया था, मानव हैं भरोसे लायक नहीं होते, मेरी ही मति मारी गई थी---
यदि यह मानवता है, तो राक्षसवृति क्या है? मैनें क्यों राक्षस कुल से मानव कुल में प्रवेश किया? यदि नहीं किया होता तो आज अपने पुत्र के शव पर विलाप नहीं कर रही होती।क्या माँगा था मेरे पुत्र ने,बस आचार्यों के लिए न्याय ही तो? और परिणाम?

**घटोत्कच वध।**


-© घनश्याम सहाय
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