भ्रष्टाचार (हास्य-व्यंग्य)- श्री नवल किशोर सिंह

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*भ्रष्टाचार*

 भ्रष्टाचार एक शाश्वत शब्द है। आप जहाँ खोजेंगे, वहीं मिल जाएगा। कई बार तो गले भी पड़ जाता है। ऐसा कि न निगलते बनता है, न उगलते।

कुछ लोगों का मानना है कि भ्रष्टाचार= भ्रष्ट+ आचार से बना है। यह उचित नहीं जान पड़ता। दरअसल यह शब्द भरे अष्ट आचार के सम्मिलन से बना है। अब ये अष्ट आचार कौन से हैं? यह पता करना आपका काम है, मेरा नहीं। मैंने तो गूढ़ बात का रहस्योद्घाटन निःशुल्क ही कर दिया। विशेष आप ढूंढिये, किसी आचार्य को पकड़िये, ऐसे न पकड़ आये तो गिरेबान से भी पकड़ सकते हैं। हाँ, इस स्थिति में शब्द और शब्दार्थ सब कुछ मनमाफ़िक हो जायेगा।

भ्रष्टाचार कितना करिश्मा समेटे है अपने अंदर आप अंदाजा नहीं लगा सकते। एक तो लोगों को मालामाल बनाता है, दूसरे आपके किसी भी रुके हुये कार्य को बहुत आसानी से निबटा सकता है। यही नहीं जो आधिकारिक रूप से आपका नहीं है, आप उसे भी पलभर में पा सकते हैं, यदि इसके शरण में गए तो। शानो -शौकत, तमाम सुविधाएं आपके कदमों में होगी।
इस युग का चमत्कार है- भ्रष्टाचार।


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 यही नहीं, देखिये गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी इसकी महत्ता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-

राम दुआरे तुम रखवारे ।
होतु न आज्ञा बिनु पैसा रे।

अहा क्या लिखा है, बिन पैसे के आज्ञा होती ही नहीं। पैसा ही भ्रष्टाचार की नींव में होता है। इस गहन भाव बोध को समझिए और आत्मसात कीजिये। कुछ असहाय वादी विचारकों का तो यहाँ तक मानना है कि भ्रष्टाचार के जनक ही हनुमानजी थे।

अज्ञानी लोग आपको बरगलायेंगे, पाप-पुण्य का बखान करके आपको भ्रष्टाचार विमुख करने की कोशिश करेंगे। मत सुनिये। भ्रम वाक्य यह है-

रुपया खूब कमाइये, ताखे धरि ईमान।
यही परम उपकार है, गावत है वेद पुराण।।
मरने में रह जाये जब, पांच मिनट की देर।
पापों से हट जाइये, यही धरम का ढेर।।

यदि आजतक आप भ्रष्टाचार से दूर हैं तो छोड़िए झिझक और आइये मिलकर भ्रष्टाचार करते हैं।


-©नवल किशोर सिंह
  

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