मानवाधिकार (हास्य-व्यंग्य)- श्री घनश्याम सहाय

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।।मानवाधिकार।।

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आज उसके घर पुलिस आई है।पूरा मुहल्ला आश्चर्य में है---मास्टर के घर पुलिस आई है।पुलिस और अपराध का चोली-दामन का साथ है- 

बिना अपराधी के पुलिस का क्या काम?कभी-कभी तो अपराधी पुलिस को बोल भी पड़ते हैं--साहब!हम हैं तो आप हैं---अन्यथा नहीं। यदि अपना अस्तित्व बचाना है तो हमारा पोषण करो--और पुलिस भी अपने अस्तित्व की ख़ातिर उनका पोषण करने में जुट जाती है--इसमें गलत क्या है? हर कोई अपने अस्तित्व के स्त्रोत को सेवता है,तो वह भी करती है।

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               courtesy-google

ख़ैर, बात मास्टर साहब की हो रही थी,तो उन्हीं की बात हो--बेचारे प्राईवेट स्कूल में शिक्षक हैं---- तनख़्वाह,मात्र दस हजार रुप्पली महिने के--वह भी बंद--किचन के सभी कनस्तर खाली, ऐसा लगता है जैसे भगवान विष्णु ने अपने वामन अवतार में उसका समस्त किचन नाप दिया हो।
इसी बीच इंस्पेक्टर ने मास्टर का दरवाजा खटखटा दिया--मास्टर!अबे ओ मास्टर--दरवाजा खोल। मास्टर ने दरवाजा खोल दिया--कृश काया, आँखें अन्दर को धँसी,कदमों में लड़खड़ाहट--अब ये लड़खड़ाहट नशे की थी या भूख की--ख़ुदा जाने या फिर स्वयं मास्टर । मेरी समझ में तो,मास्टर है,तो नशा भूख का ही हो सकता है।

इंस्पेक्टर ने मास्टर के लड़खड़ाते कदमों को देख कड़क अंदाज में बोला--
क्यों बे मास्टर,नशा करता है? दारू पीता है? तुझे पता नहीं कि राज्य में दारू बंद है।
मास्टर--पेक्ट साब!मैं ठहरा गरीब मास्टर--नशा मेरे संस्कार में नहीं।

इंस्पेक्टर--संस्कार?हुँह,तो तेरे कदम और जब़ान क्यों लड़खड़ा रहे हैं?
मास्टर आँखों में आँसू लिए बोल पड़ा-------

--नशा भूख का भी होता है पेक्ट साब।भूख से भी बड़ा कोई नशा होता है क्या ? पेक्ट साब,भूख अपने आप में एक नशा है--इसका नशा शराब, गाँजा,भाँग,चरस आदि के नशे से भी ख़तरनाक नशा होता है।
इंस्पेक्टर ने मास्टर का कालर पकड़ लिया और बोला- बहुत भाषण देता है--बड़ी संस्कार-संस्कार चिल्लाता है--ये बता चोरी क्यों की--बनिए ने तेरे ख़िलाफ़ कम्पेल लिखाया है कि तूने उसकी दूकान से ब्रेड के पैकेट चुराये हैं।

मास्टर ने नजरें नीची कर लीं।इंस्पेक्टर ने उसके दो डंडे रसीद कर डाले और कहा---
--अबे बोलता क्यों नहीं?बोल?

मास्टर की आँखों से आँसू टपक पड़े।भूमि ने लपक कर मास्टर के आँसुओं को अपने अंक में समेट लिए--भूमि जानती थी--ये सिर्फ़ आँसू नहीं मास्टर का सम्मान है।
मास्टर--पेक्ट साब!बच्चा कई दिनों से भूखा था--ब्रेड बनिए के दुकान में बिकने का कई दिनों से इंतजार कर रहा था--मैनें सोचा, बिक तो रहा नहीं--यूँ ही पड़े-पड़े खराब हो जाएगा--तो मैनें उठा लिया--किसी कचरे के डिब्बे की शोभा बनने से तो अच्छा है--किसी के पेट की शोभा बन जाए। माँ कसम,झूठ नहीं कह रहा मैं--बनिए ने देखा भी था।

इंस्पेक्टर थोड़ा नरम पड़ा,शायद उसके अंतस के किसी कोने में छुपी इंसानियत ने साँस ली।इंस्पेक्टर ने कहा--मास्टर, उठाने और चुराने में अंतर होता है---माँग लिया होता।

मास्टर--माँगा तो था---फीस,लगभग छः महीने की फीस बनिए ने जमा नहीं कराए हैं जिसका परिणाम---ब्रेड चोरी के रूप में आया।

इंस्पेक्टर--माँग लिया होता?
मास्टर ने इंस्पेक्टर और बनिए को ऐसी निगाह से देखा जैसे बकरा कसाई को देखता है।

इंस्पेक्टर ने मास्टर के घर से फफूँद लगा ब्रेड बरामद किया--सिपाही ने मास्टर को हथकड़ी लगा दिया---और "भूख" दारू पीने के ज़ुर्म में लाकअप में डाल दी गई।
बनिया,आज बहुत खुश है--आज वह छः महीने की देनदारी से बच गया---साथ ही खुश हैं वे सभी लोग जिनपर देनदारी बनती थी।खुश तो पत्रकार बंधु भी हैं क्योंकि आज अच्छी खबर मिली है--यह खबर उनके लिए कुछ न कुछ लेकर आएगी जरूर।

लेकिन मास्टर के घर में "भूख" अब भी छटपटा रही है--- अरे!ये खबर फालतू की है--छपने योग्य नहीं है---ऐसी खबरों से घर के चूल्हे नहीं जला करते।
सरकार चुप,प्रशासन चुप,कोर्ट चुप,मानवाधिकार चुप---क्योंकि प्राईवेट शिक्षकों का मानवाधिकार भी प्राईवेट ही होता है--सरकारी नहीं---यदि सरकारी होता तो मिड-डे मील,पोशाक राशि आदि से मैनेज हो जाता---लेकिन------?

शायद,आनेवाले दिनों में संरक्षित अपराधियों की एक जमात पैदा हो जाए--मास्टरों की जमात।

--आखिर अस्तित्व का सवाल है। अपराधी हैं तो पुलिस है--अपराधी नहीं, तो पुलिस नही-----

मदिरालय सब खुले पड़े हैं,विद्यालय कब खोलोगे
दशा शिक्षकों की है दारूण,बोलो कब तुम बोलोगे
【कथा काल्पनिक है--इसे अन्यथा न लें।】

sahay

-©घनश्याम सहाय

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