"स्त्री दुर्दशा का जिम्मेदार कौन?" (आलेख)- कल्पना सिंह

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"स्त्री दुर्दशा का जिम्मेदार कौन?"

   कल्पना सिंह

कभी कभी सोचती हूं कि क्या सोचकर विधाता ने स्त्री की रचना की होगी? एक ऐसी कृति जिसका कोई ओर और छोर नहीं है।अनादि काल से आज तक कोई भी उसके मन की गहराई का सही सही अंदाजा नहीं लगा पाया है। पृथ्वी की उत्पत्ति और सृष्टि के निर्माण के समय ईश्वर ने सूर्य,चंद्रमा,तारे,मिट्टी, हवा,पानी, नदियां, पहाड़, मैदान, ग्रह,उपग्रह,निहारिकाएं और न जाने कितनी ही अगणित ,अद्वितीय कारीगरी के नमूने गढ़ डाले जिनके निर्माण की कहानी विज्ञान और कला दोनों के लिए ही कौतूहल का विषय रही है।जहां वैज्ञानिकों ने इनके निर्माण के रहस्य और प्रक्रिया समझने व जानने के लिए न जाने कितने प्रयोग व सिद्धांत प्रस्तुत किए वहीं कवियों,शायरों,लेखकों ने अपनी रचनाओं में कल्पनाशीलता के आधार पर असंख्य कृतियां रच डालीं।एक तरफ़ विज्ञान यह तलाशने में व्यस्त था कि जीवन की उत्पत्ति कब, कहां और कैसे हुई?सरल से जटिल जीव कैसे बने?मृत्यु क्यों होती है? नए जीव के जन्म की प्रक्रिया क्या है?आदि आदि। वहीं दूसरी ओर काव्य ,स्त्री के सौन्दर्य,स्त्री पुरुष संबंधों,प्रेम और प्रकृति को लिख रहा था।विज्ञान ने जीवन की निरंतरता के लिए स्त्री को पुरुष की बराबरी का दर्जा दिया है।एक के बिना दूसरा अकेले नए जीवन का आरंभ नहीं कर सकता है।एक को बीज (शुक्राणु)दिए तो दूसरे को उसे रोपित करने के लिए धरा (गर्भाशय)।एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व का पर्याय है फिर आख़िर सामाजिक दृष्टिकोण में असमानता कैसे पनपी? कहा नहीं जा सकता है कि वह कौन सी घड़ी,कौन सा काल रहा होगा जब से स्त्री सम्मान की गरिमा से पदच्युत होकर भोग विलास की वस्तु बन गई।पर्दा प्रथा,बाल विवाह,वैश्यावृत्ति,सामूहिक दुष्कर्म,दहेज प्रथा,सती प्रथा,अशिक्षा और अनेक कृत्यों,कुरीतियों के माध्यम से उसके मनोबल को लगातार जाने कितने दशकों से तोड़ने का अथक प्रयास समाज की विभिन्न इकाइयों द्वारा किया जाता रहा है। 

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पितृसत्तात्मक समाज,पुरुष की दंभी प्रवृत्ति,सामाजिक व्यवस्था,कानूनी लापरवाही, अज्ञानता, रूढ़िवादी सोच के चलते धीरे धीरे स्त्री पुरुष के बीच की खाई बढ़ती ही जा रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि घर की ड्योढ़ी लांघकर स्त्रियों ने अपनी योग्यता का लोहा मनवाया है।किन्तु इनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है।आश्चर्य की बात तो यह है कि एक मुकाम हासिल करने के बाद भी उसे वह दर्जा नहीं मिल पाता है जिसकी वह हकदार है।उसकी सफलता को संदेह भरी नज़रों से देखा जाता है,उस पर छींटा कशी की जाती है।

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सतही तौर पर चर्चा करते वक़्त हम स्त्री पर हो रहे विभिन्न अत्याचारों,उनके साथ किए जा रहे असमानता के व्यवहार का जिम्मेदार पुरुषों को ठहरा कर तुष्ट हो जाते हैं।किन्तु यदि गौर करें तो इसके मूल में कहीं न कहीं स्त्री की भी सहभागिता होती है फिर चाहे वह सास,ननद,जेठानी,सौतेली मां,सौतेली बहन,(आश्चर्यजनक रूप से कभी कभी सगी मां और बहन भी),विश्वासघाती सहेली आदि किसी भी रूप में क्यों न हो?यह कपोल कल्पना नहीं है बल्कि यह मैं समाज में नित प्रतिदिन घटने वाली घटनाओं के आधार पर कह रही हूं जो कभी प्रत्यक्ष देखने को मिल जाती है तो कभी न्यूज चैनलों और समाचार पत्रों के माध्यम से।इसका बड़ा सरल सा उदाहरण है कि जब कोई लड़की परम्परागत घरेलू काम के अतिरिक्त बाहर निकलकर आत्मनिर्भर बनने का निर्णय लेती है तो समाज की दुहाई देकर विरोध के स्वर घर की रसोई से ही निकलते हैं।जन्म लेते ही अधिकांशतः पहनावे,घर के कामों,खेलने,बाहर निकलने के भिन्न मानदंड,शैक्षिक भेदभाव उजागर होने लगता है।यद्यपि वर्तमान में काफी हद तक जागरूकता के कारण सोच में बदलाव आया है किन्तु वह पर्याप्त नहीं है।किसी डॉक्यूमेंट्री में मैंने हरियाणा के एक कस्बे के बच्चों का इंटरव्यू देखा था जिसमें नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले लड़के बड़ी बेबाकी से कह रहे थे कि लड़कियों का पहनावा,लड़कों की बराबरी करना और बाहर निकलने की ललक के कारण ही बलात्कार और एसिड अटैक जैसी घटनाएं होती हैं। उनका यह वक्तव्य उनके घरों में महिलाओं की स्थिति को स्पष्ट करता है। बाल मन में इस आधारहीन सच्चाई को स्थाई रूप से भरा जाने लगता है कि स्त्री कभी पुरुष की बराबरी नहीं कर सकती है,उसका मौलिक कर्तव्य पुरुष की सेवा करना है इससे उसके मोक्ष के द्वार खुल जाएंगे। स्त्री ही स्त्री को समझाती है कि पति ईश्वर तुल्य है,पूजनीय है।कोई पुरुष किसी भी स्त्री को इसके लिए बाध्य नहीं करता कि वह उसकी पूजा करे बल्कि वह उसमें एक ऐसे साथी की तलाश करता है जिससे वह अपनी मन की सभी अच्छी बुरी बातों को सांझा कर सके अपनी उलझनों का समाधान खोजने में उसे सहायक बना सके।(कुछ अपवाद तो हर जगह होते हैं)विधाता ने जिसे बराबर बनाकर भेजा उसे स्त्री ने स्वयं सिर माथे पर बिठाकर खुद से दूर कर दिया।मैंने आज तक कोई ऐसा व्रत नहीं देखा जो किसी पुरुष के द्वारा स्त्री के किसी भी रूप के लिए रखा जाता हो या यूं कहें कि ऐसे किसी व्रत का प्रावधान पुरुष के लिए नहीं है। विवाह से पूर्व अच्छे जीवन साथी की प्राप्ति के लिए सोलह सोमवार का व्रत,विवाह पश्चात सौभाग्य की लंबी उम्र के लिए तीज,करवा चौथ, बच्चों के लिए संतान सप्तमी,तिल चौथ और हलछठ ,,,,,,एक लम्बी फेहरिस्त थमा दी जाती है एक स्त्री को।इसे थमाने वाले हाथ किसी पुरुष के नहीं बल्कि स्त्री के ही होते हैं।मजेदार बात तो यह कि थामने वाली भी सहर्ष स्वीकार कर लेती है।संभवतः इस कारण यह है कि सभी व्रत,त्योहार हमारी धार्मिक आस्था के परिचायक हैं। पति के भोजन करने के बाद ही भोजन करना,पुत्र पैदा करने के लिए बाध्य करना,अत्याचार होने पर भी लोकलाज की दुहाई देकर चुप करा देना जैसे अनेक ऐसे उदाहरण हैं जो इस विषय पर सोचने पर विवश करते हैं कि क्या वाकई स्त्री की सामाजिक दुर्दशा के लिए केवल पुरुष उत्तरदाई है??

-©कल्पना सिंह
पता:आदर्श नगर, बरा, रीवा ( मध्यप्रदेश)


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