बस ऐसे ही (हास्य-व्यंग्य)- श्री घनश्याम सहाय

www.sangamsavera.in
 संगम सवेरा पत्रिका sangamsavera@gmail.com

"बस ऐसे ही"

---------------
शून्य होती संवेदनायें।
----------------------------
बस ऐसे ही का व्याकरण बहुत छोटा है किन्तु अर्थ बड़ा ही व्यापक है। संवेदनहीन मनुष्य की संवेदनहीनता का अंत कहाॅं जाकर विराम लेगा,प्रभु को भी ज्ञात नहीं। प्रभु भी विवेक शून्य हैं यह सोचकर कि यह किस प्रकार के जंतु की रचना कर दी मैनें---असंवेदनशील और हृदयहीन। कहने को तो मनुष्य इस संसार का सबसे विवेकशील प्राणी माना जाता है किन्तु आज हृदयहीनता के शिखर पर चढ़ा अपने आपको सबसे चालाक जीव मानता है।
               यह कथा है संबंधों के प्रलय में डूबते-उतराते रिश्तों की। रिश्वत है तो रिश्ते हैं, अन्यथा नहीं हैं।रिश्ता बाप-बेटे का हो, पति-पत्नी का हो, भाई-भाई का हो या फिर---सभी के सभी रिश्तों में कहीं न कहीं कोई रिश्वत जरूर है,स्वार्थ जरूर है।
   बाबू साहब, हाईकोर्ट में कभी जज हुआ करते थे, आमदनी अच्छी थी, प्रत्यक्ष भी अप्रत्यक्ष भी। रिटायरमेंट पर पैसा भी अच्छा-खासा मिला था। रिटायरमेंट के बाद बाबू साहब अपने बेटे के साथ रहने लगे---भरा-पूरा परिवार,बेटा,बहू,दो सुन्दर-सुन्दर पोते-पोती। दिनचर्या अच्छी-भली चल रही थी। रिटायरमेंट के बाद भी बाबू साहब ने घर का सारा खर्च अपने मथ्थे ले रखा था।बहु के नाम से मकान,बहु के जेवर, बच्चों की फीस आदि-आदि। किन्तु जैसे-जैसे बाबू साहब का कुबेर कोष खाली होते जा रहा था, बेटे-बहू का धन-कोष भरता जा रहा था। बेटा-बहू भी खूब आदर-सत्कार करते बाबू साहब का, पोते-पोती भी दादा के साथ लगे रहते। बाबू साहब की पत्नी को गुजरे सालों हो गया था अत: बाबू साहब की यही दुनिया थी और इसी में रमे रहते थे बाबू साहब। अचानक सरकार ने बाबू साहब की पेंशन बंद कर दी, सुना है कुछ अप्रत्यक्ष कमाई का चक्कर है। आमदनी में कमी के साथ ही बहु के व्यवहार में भी परिवर्तन होना शुरू हो गया--अब आदर ने कटाक्ष का रूप ले लिया था। बेटे-बहू के कटाक्षों से अब उन्हें रोज ही दो-चार होना पड़ता था।बहू ने भी अपने बच्चों को उनके पास जाने से रोक दिया था। आदर ने पहले कटाक्ष का रूप लिया और अब कटाक्ष ने अपने को घृणा रूप में परिवर्तित कर लिया है। बाबू साहब की जीवन यात्रा आदर से घृणा तक आ पहुंची है। न्यायाधीश अब स्वयं के ही घर में न्याय को तरसने लगे।अपने अस्तित्व की अवहेलना से त्रस्त बाबू साहब ने अपनी व्यथा को अपने एक वकील मित्र से सुना डाली। क्या विडंबना है, जीवन का खेल तो देखिए,जो स्वयं न्यायकर्त्ता रहा हो वह न्याय के लिए वकील की शरण में जा पहुंचा।
वकील मित्र ने कहा---जज साहब, ईश्वर ने,केवल मनुष्य को ही धारा के विपरित तैरने की सलाहियत बक्शी है,बहाव के साथ तो सिर्फ लाशें बहा करती हैं।कुछ उक्ति ढूॅंढो ,सब ठीक हो जाएगा---अब आपको सोचना है कि लाश की तरह बहाव के साथ बहना है या जीवित मनुष्य की तरह धारा के विपरीत।आप भी तो मनुष्य ही हो और उपर से जज,लाश नहीं हो न--अब निर्णय करो--इससे पार कैसे पाया जाए।
बाबू साहब---मित्र, मैं तो सिर्फ  "बाप" हूॅं।
वकील--क्या बाप मनुष्य नहीं होता?
बाबू साहब---कभी होता होगा। बाबू साहब की आॅंखो से आॅंसू टपक पड़े।
इस "कभी होता होगा" से वकील ने बाबू साहब की वेदना का आकलन कर लिया और वकील ने कहा---जज साहब कमरे में अकेले ही रहते होंगे। बाबू साहब ने स्वीकारोक्ति में अपना सर हिलाया।
वकील--देखो जज साहब,जैसा कहता हूं, वैसा करना, सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा। वकील ने बाबू साहब को दो ताले दिए--एक आलमारी के लिए और दूसरा कमरे के लिए और कहा---जज साहब,जब भी कमरे के बाहर निकलें--आलमारी और कमरे में ताला लगाकर कर निकलें---और हाॅं, ताला बंद  और खोलने की आवाज बहू के कान तक अवश्य जानी चाहिए।बहू कंट्रोल में आ जाएगी।बहू कंट्रोल में आ जाए तो बेटा अपने-आप कंट्रोल में आ जाएगा। जब वापिस घर आना तो कमरा अंदर से बंद कर, कुछ गिनने का उपक्रम करते रहना।
बाबू साहब---गिनूॅंगा क्या मित्रवर,सब तो चला गया।
वकील---यार जज साहब,कमरे में रद्दी तो होगी,उसे ही गिनना, लेकिन गिनना ऐसे कि लगे करेंसी गिन रहे हो---हाॅं आवाज बहू के कान तक जरूर जानी चाहिए।
बाबू साहब ने वकील मित्र के दिशा-निर्देश का पालन किया।बहू रोज आती और बंद कमरे के उपर कान लगा खड़ी हो जाती। अब धीरे-धीरे बहू के व्यवहार में परिवर्तन होने लगा है, पोते-पोती भी अब पहले की तरह पास आने लगे हैं,बेटा भी अब मधुर बोलता है।अब कोई कटाक्ष नहीं होता बाबू साहब पर। बाबू साहब की दिनचर्या घृणा से  आदर की ओर बढ़ चली है। बहू, अब बाबू साहब के इशारे पर नाचती हैं,उनका हर कहना मानती है,अब बहू मानती है तो बेटा भी----।
कथाकार संशय में है कि बहू का ससुर के प्रति प्रेम का स्वतः पुनर्जागरण हुआ है या फिर बाबू साहब का रद्दी को करेंसी के भाव गिनने ने, बहू को प्रेम से लबालब भर दिया है।
आज शुभरात्री नहीं लिखूंगा,आज प्रेम का पुनर्जागरण हुआ है।
कथाकार ने कथा तो "बस ऐसे ही" लिख दी है।इस दुनिया में इस बहुत से "ऐसे ही" का कोई जवाब नहीं है। आप ढूॅंढो,मैं भी ढूॅंढता हूॅं।


-© घनश्याम सहाय

कोई टिप्पणी नहीं

©संगम सवेरा पत्रिका. Blogger द्वारा संचालित.