सोनचिरैया (हास्य-व्यंग्य)- श्री घनश्याम सहाय

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सोनचिरैया

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एक थी सोनचिरई। बड़ी सुशील और मेहनती। भरा-पूरा परिवार, सुखद जीवन--कुछ ऐसी थी सोनचिरई की जिंदगी। रोज सुबह-सुबह चीं-चीं-चीं, कभी इस डाल तो कभी उस डाल, कभी इस मुंडेर तो कभी उस मुंडेर। सरगम से भरी उसकी चिहुँक-चिहुँक बड़ी  भली लगती थी। अपने पूरे परिवार से उसे बहुत प्रेम था और उसका पूरा परिवार भी उससे बहुत प्रेम करता था--कमाऊ जो थी--सभी उसे स्नेह से "लहुरी" पुकारते।
दिन भर के श्रम के बाद उसे जो कुछ भी प्राप्त होता उसका अधिकांश भाग वह अपने परिवार पर न्यौछावर कर देती।स्नेहशील इतनी कि पड़ोसी कैवे के परिवार को भी मदद करने से नहीं चूकती। इतना सब करने के बाद भी उसके पास जो कुछ बचता, वनराज बढ़ई के पास जमा कर दिया करती ताकि दुर्भिक्ष के समय जमा-अन्न काम आ सके---और उसका अन्न क्या? "दाल"। बेचारी रोज दाल चुगती--कुछ अपने परिवार को देती और आवश्यकता अनुसार कौवे के परिवार को भी देती।
दुर्भाग्यवश, एक दिन दुर्भिक्ष आ ही गया---पूरे वन में आकाल सा वातावरण व्याप्त हो गया। सोनचिरई के परिवार को भूखे मरने की नौबत आ गयी किन्तु चालक कौवा अपने परिवार के भरण-पोषण का जुगाड़ भिड़ा ही लेता। कौवा इतना अहसानफरामोश कि स्वयं के परिवार तक ही सिमीत रहता---सोनचिरई के परिवार की ओर देखता भी नहीं। उसे सोनचिरई का किया गया उपकार भी याद न रहा। यही तो संसार है, शायद पक्षियों ने भी मनुष्यों की राह पकड़ ली है।
अपने परिवार को भूख से आकुल देख,सोनचिरई का हृदय व्यथित हो उठता।एक दिन एक मुंडेर पर बैठी बेचारी सोच में थी कि कैसे परिवार चले--अनायास ही उसे याद आया---अरे मैनें तो बढ़ई राजा के पास दाल जमा करा ही रखा है--उस जमा दाल से कुछ दिन तो परिवार खींचा ही जा सकता है---आगे की आगे देखी जाएगी। इसी सोच में डूबी वह जा पहुँची बढ़ई राजा के पास।पीछे-पीछे पड़ोसी धूर्त कौवा भी आ पहुँचा।कौवे को पता था--सोनचिरई बढ़ईराज के पास दाल जमा करती है---कौवा अपने चक्कर में लग गया--लगा जुगत भिड़ाने कि सोनचिरई की जमा-पूँजी में से शायद उसे भी कुछ मिल जाए। कौवे ने बढ़ईराज से बात की,दोनों सोनचिरई के दाल का घोटाला करने पर सहमत हुए। सहमति यह बनी कि सोनचिरई की पूरी जमा दाल को हड़प कर आपस में बाँट लिया जाए-----
बेचारी सोनचिरई।
अपने और अपने परिवार के भूख से व्यथित सोनचिरई जा पहुँची बढ़ईराज के पास और कहा--
बढ़ई बढ़ई खूँटा चीरsअ,
खूँटा में मोर दाल बा।
का खाऊँ, का पीऊँ, का ले परदेश जाऊँ।
बढ़ई सोनचिरई के जमा दाल को एक खूँटे में छुपा कर रख देता था। जमा दाल की मात्रा भी बहुत थी--बढ़ईराज लालच में, उपर से बोलबच्चन कौवे की सलाह।एक कहावत है------------
"जान मारे बनिया, पिछाड़ मारे चोर।" मतलब बनिया जानकार को ही अधिक ठगता है और चोर भेद प्राप्त कर चोरी करता है। यहाँ तो दोनों ही की उपस्थित है बढ़ई रूप में बनिया और चोर रूप में कौवा।
बेचारी सोनचिरई, उसकी दशा तो ऐसी हो गई जैसे-"घर से उठ बन में गया बन में लग गई आग"
अभागे जीव को कहीं सुख नहीं। सोनचिरई ने अपने जमा दाल की फिर माँग की---
बढ़ई बढ़ई खूँटा चीरsअ,
खूँटा में मोर दाल बा।
लेकिन बढ़ई खूँटा चीरने को राजी न था।सोनचिरई मनुहार करती रही लेकिन बढ़ई बस मुस्कुराता रहा---तभी कौआ बोल उठा--
ए चिरईयाँ ओटनी काठ प बईठनी
काठ खाले गुबुर-गुबुर हगे लिस मुरकुटनी(कम)।
कौए ने कहा, अरे ए सोनचिरई, क्या करेगी इतने दाल का-- तू तो कम खाती है और विष्टा भी तेरा काफी कम है---क्या करेगी दाल का?
सोनचिरई को तो अपनी जमा-पूँजी चाहिए थी,उसने फिर माँग कर दी। बढ़ई और कौए ने एक दूसरे को देखा और दोनों ही एक स्वर में बोल पड़े--
ए चिरईयाँ अट तोर पाँख बोले पट,
तोर खलरा ओदार तोर माँस मजेदार।
और बढ़ई ने खूँटे की जगह सोनचिरई पर अपनी आरी चला दी। सोनचिरई छटपटाई--बढ़ई ने उसे झिड़का चुप कर रे चीं-चीं की बच्ची,शोर न मचा--बढ़ईराजा शाँति का पुजारी है। कौआ अपनी धुन में बिंदास काँव-काँव करता रहा--सोनचिरई के माँस से आज दोनों ही तृप्त होंगे--सोनचिरई की जमा दाल बढ़ईराजा के राजकोष को जाएगा और कुछ कौआ ले जाएगा।
"आकास में बिजली चमके,गधेड़ो लात बावे।"
बिजली आकाश में चमक रही है और गधा नीचे दुल्लत्ती झाड़ रहा है---गधा निरर्थक ही अपना आक्रोश प्रदर्शित कर रहा है। क्या गधे के दुल्लत्ती झाड़ने से बिजली चमकनी बंद हो जाएगी? मैं भी तो गधे से कम नहीं, मैं क्यों सोनचिरई के लिए बेकार में दुल्लत्ती झाड़े जा रहा हूँ---क्या मेरे दुल्लत्ती झाड़ने से सोनचिरई को दाल मिल गई? बढ़ई और कौए ने मिलकर सोनचिरई के पंख उखाड़ डाले और सोनचिरई के माँस का आनंद लिया। ईश्वर न करे, जिस तरह सोनचिरई के दिन फिरे---उस तरह आपके भी फिरें।

एड़ी दोड़ी तिलिया चौली,
चम्पा शेख सुत जा--सुत जाsआ।
आपौं सुत जाईं।रात मजे क हो गईल ह।
।।शुभ रात्री।।


-©घनश्याम सहाय

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