आंदोलन का स्वरूप और निष्कर्ष (आलेख); मंगलेश सोनी

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#आंदोलन का स्वरूप और निष्कर्ष


विगत कुछ वर्षों से आंदोलन के स्वरूप में बड़ा परिवर्तन हुआ। शाहीनबाग से आरंभ हुई यह विद्रोह की आग धीरे धीरे हर जगह फैलने लगी। आंदोलन किसी उद्देश्य या विषय को लेकर हो, संययत हो अनुशाषित हो, तभी तक सही है, जब तक आंदोलन जन कल्याणकारी हो। जब आंदोलन जनता की समस्या को न समझकर केवल अपनी मांग के लिए अड़े रहने की मानसिकता पर निर्भर हो जाये तब ऐसे आंदोलन जन व्यवस्था को बिगाड़ने वाले ही साबित होते है।

विगत कई सप्ताह से दिल्ली, हरियाणा व पंजाब के हजारों आंदोलनकारी हाई वे को जाम करके बैठे है, कृषि बिल 2020 का विरोध करने के लिए आंदोलन के रूप में सरकार के कानून का विरोध कर रहे। परन्तु सरकार और आंदोलनकारियों के कई बार की वार्ता के बाद भी कोई निष्कर्ष नही निकल रहा। किसान आंदोलनकारियों को यह डर है कि कृषि बिल 2020 के 3 कानून के कारण एपीएसी मंडिया बंद हो जाएगी या सरकार निकट भविष्य में एमएसपी से पीछे हट सकती है, जबकि कृषि कानून में ऐसा कोई शब्द नही है कि सरकार एपीएसी मंडियों या एमएसपी के संबन्ध में कोई विचार कर रही है। परन्तु मंडियों में निजी कंपनी व व्यापारियों की हिस्सेदारी के कारण यह भय आंदोलन कारियों को सता रहा है कि मंडियां निजी हाथों में जाने के बाद किसानों को अपनी फसलों के सही दाम नही मिल सकेंगे। देखा जाए तो उनका भय सही भी है क्योंकि पूर्व की सरकारों में जनता व किसान का इतना विश्वास नही बन पाया। उसी कारण आज यह विरोध जारी है। दूसरी तरफ इस आंदोलन को विपक्ष ने अपनी ताकत बताने और वोटबैंक को केंद्रीय सत्ता के विरुद्ध भड़काने का माध्यम समझ लिया है। सभी विपक्षी पार्टियां मैदान में है, मोदी व शाह के लिए आपत्तिजनक बयान दिए जा रहे है, मार्क्सवादी व कम्युनिस्ट छात्र संगठन अपनी ढपली और काले कपड़े के साथ आंदोलन में शामिल होकर किसानों को सत्ता के विरुद्ध डटे रहने के लिए उद्वेलित कर रहे है।

भारत में सम्राट का शासन नही, न्यायपालिका ही सर्वोच्च है, इस आंदोलन के संबन्ध में न्यायपालिका ने भी जनहित याचिका में निर्णय सुनाते हुए कहा कि कृषि कानून अभी लागू नही किए जाएंगे। उसके बाद भी आंदोलनकारी संगठनों का अड़े रहना समझ नही आ रहा।

किसान आंदोलन के कारण सड़कों पर जमे हुए लोगों के कारण स्थानीय लोगों को बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, नोकरी, व्यापार के लिए जाने वाला माध्यम वर्गीय परेशान है, इसे अपने गंतव्य तक पहुचने में पहले से दोगुना समय लग रहा है। किसान को अपने खेतों तक पहुचने में बहुत परेशानी हो रही, जिनके खेत हाई वे के करीब है, वे किसान अपनी फसलों के देखरेख के अभाव में चिंतित है, कि आखिर कब सड़कें फिर से खुलेंगी ? कब सब कुछ सामान्य होगा ? आंदोलन को सर्व सुविधा युक्त बनाने में विपक्षी पार्टियों ने भी पूरी ताकत झोंक रखी है, ताकि भीड़ परेशान होकर वापस ना जाने लगे, कुश्ती, कबड्डी, खेलने से लेकर आराम करने, खाने पीने का पूरा इंतजाम है। जब तक आंदोलन में इस तरह के दृष्टिकोण बने रहेंगे, मुद्दों पर बात न करके केवल विरोध पर लोग अड़े रहेंगे। तब तक देश में दमदारी से निर्णय लेने वाली सरकारें आखिर कार्य कैसे करेंगी ? क्योंकि आंदोलनकारी कृषि कानून में सुधार की कोई बात ही नही कह रहे, केवल वापस लेने पर अड़े हुए है, हाँ यहां यह बताना आवश्यक है कि आंदोलनकारियों का जनाधार इतना अधिक है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गई समीक्षा समिति के सदस्यों ने भी अपना नाम वापस ले लिया। क्योंकि कोई भी इस विवाद में बीच में नही आना चाहता। परन्तु आखिर कब तक ? यदि कानून किसान के लिए हितकर नही तो उसमें क्या सुधार हो यह स्पष्ट करके सरकार को बताना चाहिए, या फिर अकारण सड़कों को जाम करके बैठने की हठ धर्मिता को समाप्त करना चाहिए। आंदोलन कैसे किया जाए ? इसके संबन्ध में भी अब कानून बनाने का समय आ गया है, क्योंकि कैसी भी स्थिति या विरोध के कारण सामान्य जन को यदि परेशानी होती है तो यह ठीक नही माना जा सकता।

जन भावनाओ का सम्मान राजनीति व आंदोलनकारी दोनों को ही करना चाहिए, अब समय आ गया है कि हमे आंदोलन के स्वरूप पर भी विचार करना होगा, आवश्यक नीति नियम बनाने होंगे, ताकि आंदोलन के नाम पर स्वछंद मानसिकता के लोग जन सामान्य के अधिकारों की अवहेलना न करें, साथ ही आंदोलन विपक्ष का दांव न बन जाये।



मंगलेश सोनी
युवा लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार
मनावर जिला धार, मध्यप्रदेश

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