कैसे गाएँ गीत मल्हार (कविता)- कमला सिंह 'महिमा'

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# कैसे गाएँ गीत मल्हार


पल्लवित-पुष्पित जीवन था उसका

हरियाली छायी थी चहुँओर |

कहीं डाल पर कोयल गाते ,

कहीं पक्षियों के कलरव की शोर |

सावन जब भी आती थी ,

डालों पर झुले पड़ जाती थी |

गूँजित होती थी दसों - दिशाएँ ,

कजरी की धुन सजती हर शाम |

गाता था प्राणों का तार - तार ,

साथी आओ सुनाऊँ गीत मल्हार |

चिर संचित स्वप्न सँजोए ,

कर्म रत था वह किसान |

अतिवृष्टि तो कहीं पाले की मार ,

महिनों के मेहनत को कर विफल,

छाया जीवन में बन अंधकार |

हृदय आतुर मन अति क्रंदित ,

सूखे पतझड़- सा बना बसंत |

उर में उठते अब हाहाकार ,

व्यथित उर चिंताएँ हजार |

कहता यही वह बारम्बार ,

साकी कैसे गाऊँ गीत मल्हार | 

पल्लवित पुष्पित उपवन को

सिंचा था पलकों तल स्वप्न लिये |

नेह जल सिंचा जिन फसलों को ,

झेल ना पाया प्रकृति की मार |

फसल-बर्बाद-स्वप्न-अश्रु बन टूटा ,

पुष्पित बाग जब गये उजाड़ |

मुख मलिन कांतिहिन हुआ ,

हृदय में लिये दुख के अमिट भार |

प्रतिपल दुहराता वह यही राग ,

साकी कैसे गाऊँ गीत-मल्हार |

जिस डाली सजती थी झूले की साज ,

कर गया जीवन का अंत वहीं |

अब कहो कैसे वह बेवा श्रृंगार करे,

कैसे बाजे नूपुर की झंकार ?

कैसे अब मेंहदी रचे हाथों में ,

कैसे बाजे चुड़ियों की झंकार |

कैसे माथे पर बिंदिया चमके 

कैसे करे अब मान- मनुहार ?

नयनों से बहते निरत अश्रुधार ,

अंतर्वेदना निरत करती चित्कार

प्रिये कैसे गाऊँ गीत मल्हार ?


--कमला सिंह 'महिमा'
खोरीबाड़ी, पश्चिम-बंगाल |
★★★★★★★★★★★



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