हत्या (कहानी)- कल्पना सिंह

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**हत्या (कहानी)**

  आजादी के इतने वर्षों के बाद भी भारत के अनेक राज्यों में पर्दा प्रथा,जात पात,कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयां मुंह बाए खड़ी हैं। उ. प्र. के एक छोटे से गांव बलिया में रहने वाला हरिया, जात का चर्मकार था और चमड़े का काम करके अपने परिवार की गुजर बसर करता था। सामाजिक व्यवस्था में उसकी बिरादरी को अछूत मानकर उनसे अमानवीय व्यवहार किया जाता था।यहां तक कि सभ्य समाज के कहे जाने वाले कुलीन वर्ग के लोग उनके राह में दिख जाने मात्र से खुद को अपवित्र मान लेते थे। शिक्षा और जागरूकता के अभाव में निम्न वर्ग के ये लोग नरकीय जीवन जीने के लिए बाध्य थे और इसे अपनी नियति मान चुके थे। लेकिन हरिया की सोच अन्य लोगों से बिल्कुल भिन्न थी। वह अपने बच्चों को पढ़ा लिखाकर बड़ा आदमी बनाना चाहता था जिससे कि वे  नरकीय जीवन से मुक्ति पा सकें इसलिए उसने उनका दाखिला सरकारी स्कूल में करवा दिया।जब इसकी खबर दबंगों तक पहुंची तो पंचायत बुलाकर उसे हुक्का पानी बंद करने के लिए धमकाया और बच्चों का नाम कटवाने का फैसला सुना दिया गया।लेकिन जब वह नहीं माना तो उसके बच्चों के सामने उसकी बेदम पिटाई कर अधमरी हालत में कर यह कहकर छोड़ गए ,"समझा लेना अपने मर्द को,नहीं तो अगली बार जान से हाथ धोना पड़ेगा। बड़ा आया ,अपने  बच्चों को पढ़ाने वाला। " उसकी पत्नी भूरी ने रोते हुए कहा,"मैं तुमसे विनती करती हूं कि बच्चों को पढ़ाने का भूत अपने सिर से उतार दो,बहुत हो गया।जान है तो जहान है।जैसे बाकी लोग जी रहे हैं वैसे ही हमारे बच्चे भी जी लेंगे।"लेकिन हरिया भी हार मानने वाला नहीं था।उसने भूरी को समझाते हुए कहा," बापू कहता था कि हम लोग आजाद देश के नागरिक हैं।हमें भी अब उतने ही अधिकार प्राप्त हैं जितने की इन लोगों को।सरकार हमारे साथ है।तुम बिल्कुल चिंता मत करो।"कहते हुए उसकी आंखों में आशा की किरण साफ दिखाई दे रही थी।लेकिन भूरी को यह सब सुनकर भी तसल्ली नहीं हो रही थी।वह बोली," एक बार फिर सोच लीजिए।"हरिया मुस्कुराया और उसके गालों पर थपकी देते हुए बोला,"सोच लिया,अब कदम पीछे नहीं हटाऊंगा।चाहे प्राण ही क्यों न चले जाएं।"

हरिया की लड़ाई केवल कुछ लोगों से नहीं बल्कि समाज की उस विचारधारा से थी जिसका मानना था कि उन्हें पढ़ने लिखने का कोई अधिकार नहीं है।इसलिए स्वाभाविक था कि जीत आसानी से मिलने वाली नहीं थी। उसे समाज से बहिष्कृत करके तरह तरह से प्रताड़ित किया गया। सिर छुपाने तक की जगह नहीं थी।गुहार लगाने पर कुछ समाजसेवी संगठन उसकी सहायता के लिए आगे आए।हरिया धीरे धीरे तथाकथित कुलीन वर्ग के गले की हड्डी बनता जा रहा था।उससे मुंह की खाने से उनकी बदनामी हो रही थी सो अलग।इसलिए सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि क्यों न इस जड़ को ही काटकर फेंक दिया जाए।

अगली सुबह समाचार पत्र में एक बड़ी सी हेडलाइन छपी,"सामाजिक असमानता के विरूद्ध आवाज उठाने वाले हरिया की सड़क दुर्घटना में मौत।"लेकिन क्या यह वाकई एक हादसा था?बिल्कुल भी नहीं।यह न केवल हरिया की बल्कि उस लोकतंत्र की भी खुलेआम हत्या थी जिसकी न्यायप्रणाली पर अटूट विश्वास करके हरिया ने अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी।



--कल्पना सिंह

पता:आदर्श नगर, बरा,रीवा (मध्यप्रदेश)
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