कथाकार इलाचंद्र जोशी (आलेख)- डॉडॉ. पवनेश ठकुराठी

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       मानव जीवन और समाज का सूक्ष्म अवलोकन करने वाले हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार इलाचंद्र जोशी का जन्म 13 दिसंबर, 1903 को अल्मोड़ा के दन्या नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम पं.चंद्रबल्लभ जोशी था । मात्र 11-12 वर्ष की उम्र में ' सुधाकर' नामक हस्तलिखित पत्रिका निकालकर आपने अपने साहित्य प्रेम का परिचय दे दिया था। आगे चलकर आपने हिंदी साहित्य की अप्रतिम सेवा की। एक मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार के तौर पर आप हिंदी जगत में काफी चर्चा में रहे।

         इलाचंद्र जोशी ने घृणामयी(1927), सन्यासी(1941), पर्दे की रानी(1941), प्रेत और छाया(1949), निर्वासित(1946), मुक्तिपथ(1950), सुबह के भूले(1951), जिप्सी (1952), जहाज का पंछी(1955), ऋतुचक्र आदि उपन्यास लिखे।धूपरेखा(1940), दीवाली और होली(1942), रोमांटिक छाया (1943), आहुति(1948), खंडहर की आत्माएँ(1946), डायरी के नीरस पृष्ठ(1950), कँटीले फूल लजीले काँटे(1957) आदि उनके कहानी संग्रह हैं।

         इनका पहला उपन्यास घृणामयी था,जो बाद में लज्जा नाम से प्रकाशित हुआ। संन्यासी मनोविश्लेषणात्मक शैली में लिखा गया प्रसिद्ध उपन्यास है। यह आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है। नंदकिशोर इस उपन्यास का नायक है। प्रेम के त्रिकोंण पर आधारित इस उपन्यास में पात्रों को कुंठित दिखाया गया है। इसका नायक दो नारियों से प्रेम करता है,किंतु एक को भी प्रसन्न नहीं रख पाता। वह अहंकारी होने के साथ-साथ हीनताबोध से भी ग्रसित है।

           जहाज का पंछी उपन्यास में इलाचंद्र जोशी ने युवा पीढ़ी की बेरोजगारी और आजीविका की समस्या को चित्रित किया है। इस उपन्यास का नायक महानगर में आजीविका हेतु भटकता रहता है,किंतु उसे कहीं काम नहीं मिलता। अतत: वह निराश होकर वापस अपने घर लौट आता है। इस उपन्यास की नायिका लीला अभिजात्य वर्ग से जुड़ी होने के बावजूद अत्यधिक स्वाभिमानी और सुशील है। इस उपन्यास में उन्होंने बेरोजगारी का दंश झेलती भारत की युवा पीढ़ी के दर्द को वाणी प्रदान की है: " मैं पूछता हूँ कि आज अस्सी फीसदी पढ़े- लिखे नौजवान जो दर-दर मारे-मारे फिर रहे हैं, जिनकी सारी ताकतें कौम की तरक्की में लगने के बजाय दो जून अपना पेट भरने में जाया हो रही हैं। और उन कोशिशों में भी जो कामयाबी नहीं हासिल कर पा रहे हैं, खाने-पीने के ठिकाने की बात तो दर किनार, जिन्हें पांव फैलाने के लिए छह फिट बंद या खुली जमीन तक मयस्सर नहीं हो पाती, उनका इंतजाम कायदे- कानून के ठेकेदार लोग क्या कर रहे हैं?"

         इसी उपन्यास में वे आज के समाज के यथार्थ को दर्शाते हुए लिखते हैं- "आज मानव जीवन में स्वतंत्रता कहीं किसी भी रूप में विद्यमान नहीं है। आज मानवता के सारे तंत्र और यंत्र स्वतंत्रता को इस पृथ्वी पर से एकदम मिटा देने के लिए बाजी लगाए बैठे हैं। कहीं स्वतंत्रता छिपे तौर पर, बदले हुए भेष में भी टिकी न रह जाय, इस आशंका से उसे डराने और भगाने के लिए सभी प्रयत्न किए जा रहे हैं। 

          इनके ऋतुचक्र उपन्यास में सुरम्य पर्वतीय वादियों में छिपे आनंद के रहस्य का उद्घाटन हुआ है। प्रेम की विभिन्न स्थितियों को दर्शाने वाले इस उपन्यास में कुमाऊं अंचल की लोक संस्कृति का भी सुंदर निरुपण हुआ है। 

           उपन्यासों के अलावा इनकी कहानियाँ भी मनोविश्लेषण की प्रवृत्ति पर आधारित हैं। मानव मन की दशाओं का जैसा निरूपण इलाचंद्र जोशी ने अपने कथा साहित्य में किया है, वैसा शायद ही किसी अन्य कथाकार ने किया हो। इलाचंद्र जोशी ने कथा साहित्य के अलावा कई आलोचनात्मक निबंध भी लिखे।उन्होंने सुधा, कलकत्ता समाचार, विश्वमित्र, विश्ववाणी, चांद, संगम, धर्मयुग आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया। हिंदी साहित्य को अपनी रचनाओं से समृद्ध कर वे 14 दिसंबर 1982 को इस लौकिक संसार को छोड़कर चल दिये। 

- डॉ. पवनेश ठकुराठी, अल्मोड़ा, उत्तराखंड। 
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